कविता - 🌷 ' संभव और असंभव ‘
कवयित्री - तिलोत्तमा विजय लेले
तारिख - २२ ऑक्टोबर २०१९
न जाने लोग क्यूँ नहीं समझ सकतें,
मन की भावनाओं से यूँ खेल खेलतें ...
यूँ तो किसी को फर्क नहीं पडता है ...
जिंदगी, हर कोई जी रहा मरते-मरते !
मौका मिलते ही क्यूँ यें भूल जातें हैं,
कई सालों से बुने हुए-ये-रिश्ते-नाते हैं ...
क्या पैसा ही बस्स ईश्वर बन गया है ?
फिर ढूंढो जीने के, कुछ और बहाने !
मरना भी कई-कई किस्म का होता है ...
कभी गंदी-गंदी गालीओं की बौछार से !
कभी मजबुरीयों की, लंबी पलटनों से ...
कभी मान-सम्मान टूट जाने की घुटनसे ...
हर तरफ फै़ले रेंगने वाले कीडे-मकोडे ...
कभी डराते हुए, तो कहीं ड़सते हुए !
कहीं झटपटाते हुए कहीं झुलसते हुए ...
कहीं शरम के मारे रोते या रुलाते हुए ...
क्या यही नर्क है, सवाल ये पैदा होता ...
नरकासुर को मारना, आसान नहीं होगा !
हाथ-पैर मारोगे तो ही तैरना संभव होगा ...
नहीं तो रोज डूबकर मर जाना तय था !
🌷@तिलोत्तमा विजय लेले
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