
कविता - 🌷 " मुमकिन "
कवयित्री - तिलोत्तमा विजय लेले
अकेलापन जब आंखों से, यूं ही छलकता जाएं…
सुर्ख ज़मीं पर पड़े हुए, बड़े-से दरार भरता जाएं…
जैसे झील में उतरा हो, कोई दीवाना-सा बादल…
वक्त ऐसा गुजर रहा कि आईना हो गया घायल…
हर पल हर लम्हा सृष्टि के ठहराव की ये कहानी
शांत मुद्रासे यूं-देखें-नज़ारा, झील-का-ठहरा-पानी
धुंधला सा क्यों हुआ है, मन का खुशनुमा आंचल…
वक्त दर्पण दिखाता चला पर वह तो है बड़ा चंचल…
नयनों की भाषा कभी-है-सरल-तो-कभी-है-कठिन…
कहना कुछ और है, पर इशारों से कर दें मुमकिन…
🌷@तिलोत्तमा विजय लेले
🙏🕉🔆
Leave a Reply