कविता - 🌷 " मंज़िल "
कवयित्री - तिलोत्तमा विजय लेले
मन ही मन में मंज़िल तो समझ लो तय है...
फिक्र ये है की कहीं रास्ता ना भटक जायें...
चाहे कड़ी तपती-धूप हो या बर्फीली ठंडक...
जोरो-शोरो की बरसात या ढ़की हुई सड़क...
राहों पे फूल बिछाए हो या चुभतें हुए कांटें...
चाहे कईं मुश्किलोंका सामना भी करना पडे...
मन के बंद दरवाज़े-खिड़कीयां भी खोल दिए...
अब मंज़िल दूर नहीं बस्स कुछ-पल की देर है...
मंज़र दिखाई न दे, तो वो आँखो का दोष है...
मंज़िल को हम साथ ही लिए घूमतें फिरतें हैं...
जमींपर खुले-आस्मान के तले सब मौजूद है...
अगर इरादे हो पक्के मंज़िल बहुत आसान है...
🌷@तिलोत्तमा विजय लेले
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