कविता - 🌷" ख्वाब का ख्वाब "
कवयित्री - तिलोत्तमा विजय लेले
पता नहीं क्यों दिन यूंही ऐसे पलट गए…
कि ख़्वाब देखना भी जैसे भूल ही गए
एक जमाना था, आंखोंमें नींद थी कम…
ख़्वाबों का आना जाना ही था हर कदम
ख़्वाब भी ऐसे-ऐसे की रात कम सी लगें
जादू-नगरी से, राजकुमार जो मिलने-आते…
सुबह की किरणें, मां का रूप लेके आती
मीठे सपनों के माहौल से, बाहर ले आती…
अब दुनियादारी में इस कदर उलझे हैं कि…
"ख्वाब का ख्वाब"-बनकर-ही-बस-रह-गया है
आंखोंमें बसे सुनहरे सपने ओझल से हुए हैं…
सतरंगी इंद्रधनुष मानो "रंग-हीन" हो गया है
🌷@तिलोत्तमा विजय लेले
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