कविता :🌷 " एक नदी जो मुझमें डूबी "
कवयित्री : तिलोत्तमा विजय लेले
जब जब कोई अनदेखी अनसुनी शक्ति,
मुझे प्रकृती के निकट खिंचती ही रहती…
जैसे बिना डोर हीं पतंग हवाओं में जाती,
और हवा के झोंकों पे संवारकर इठलाती…
कल-कल बहती नदी जो चुंबक की तरह,
मेरे ही अंतरंग में कईं सदियों से बह रहीं…
जब जब दरिया के निकट, जाना होता है,
मन भाव-विभोर होकर, उछलने लगता है…
फ़िर मैं, मैं ना रहके और कोई हूं बन जाती,
क्यों कि शायद एक नदी है जो मुझमें डूबी…
फ़िर गुनगुनाती है वोह मेरे ही मन-मंदिर में
बिना वजह बहकी-बहकीसी हो जाती हूं मैं…
वो मेरे जरिये मिलन की लगन लिए बैठी है,
उसकेलिए सागर भी बांहें पसारें राह ताकें है…
🌷@तिलोत्तमा विजय लेले
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