कविता : 🌷 " अपने-पराये "
कवयित्री : तिलोत्तमा विजय लेले
रिश्ते नाते हैं नाजुक बंधन, जिन्हें संभालना होता हैं
मुश्किलें वो तराजू है जो बांटे अपना-पराया कौन है
जब जब मुसीबतों का सामना करना पड़ जाता है,
कौन अपना कौन पराया ये फर्क साफ हो जाता है
बेवक्त ज़िंदगी का क्या भरोसा, जितना सोचें कम है
पर इत्मीनान हो जाता है क्या अपना, क्या पराया है
जब अपनों से नफ़रत, और ग़ैरों से लगाव होने लगे
तो फिर समझो परिवार की सुख-शांति, खतरे में है…
अपने वजूदको निखारनेमें इतने मशगूल हो जाते हैं
की अपनों को ठुकराकर चंद गैरों को अपना लेते हैं
दूसरोंकी नजरों में उपर उठने हेतु अपनों को गिराएं,
ममता को ठुकरा कर, ऐरों-गैरों को दिल से लगा लें…
मौके पर दुनियादारी जितनी चाहे मजबूर कर डाले,
ज़िंदगी को मुश्किलों में जकड़कर, बंधनों में फंसाएं…
अगर इरादा हो पक्का, संस्कार भी हो नेक तो बस्स
हरेक कठिनाइयोंका पहाड़ टूटकर हों ही जाता है ढ़ेर…
सुनहरी संध्या के चरणों तले, लिपटा रहता है अंधेरा…
अपनोंके साथ-साथ ही उजागर होवे जीवन में सवेरा…
🌷@तिलोत्तमा विजय लेले
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