कविता - ग़ज़ल 🌷 " ख्वाहिशें "
कवयित्री - तिलोत्तमा विजय लेले
ख़ुशी-ख़ुशी से ज़िंदगी यूं ही बसर हों रही हो, मस्ती में
अचानकसे एक ख्वाहिश जन्म लेती है, मन ही मन में
अच्छा-खासा हंसता-खेलता हुआ इन्सान चुटकी भरमें,
मानो काले-जादू जैसा बदल कर कुछ और ही बनता है
ख्वाहिशें चाहे बादशाहों जैसी या फिर आम आदमी-जैसी
दिन रात पीछा करके मन का सुख-चैन ही गायब है करती
सिर्फ पल-दो-पल की खुशियां देकर बहुत कुछ ले जाती हैं
किसी बदनसीब को समयसे बहुत पहले ही बड़ा बनाती हैं
पलभरकी खुशी देके आंखोंसे नींद, चेहरेसे हंसी चुराती है
मायूस-सी-जिंदगीमें मुकम्मल लम्हों केलिए भी तरसाती है
कभी-कभी अपनी ही ख्वाहिशें, क्यों अजनबीसी लगती हैं
इतनी ज़िद्दी होती हैं कि अनदेखी भी करना, मुश्किल होवे
रिम-झिम बारिशमें दिल का चमन यूं खिलखिला उठता है,
कि तन-मनमें जाग उठती हैं, अंगड़ाइयों की मीठी ख्वाहिशें
फूलोंसे खुश्बू, फलोंसे मिठास, शब्दों से अर्थ निकल जायें,
फिर दिलोंमें जो क़ैद हैं ख्वाहिशें, उन्हें रिहा कोई कैसे करें…
जीना-मरना तो अटल है, फिर क्यों सोचके हैरान हो जायें
हर लम्हा आख़िरी-तोहफ़ा समझ कर क्यों ना जिया जाएं
किसी दिन, यूं लगता है कि लंबे-चौड़े से इंतज़ार के बजाए
दुवाएं-रंग-लाएं और सब की अधुरी ख्वाहिशें पूरी हो जाएं
🌷@तिलोत्तमा विजय लेले
🙏🕉️🔆
Leave a Reply