कविता - ख़ामोशी
कवयित्री - तिलोत्तमा विजय लेले
सावन का है मौसम, हरा-भरा सा सारा जहां
आंखों से उमड़ेगा जब सावन, फ़िर देखें कहां…
रुख़्सत हो गए हैं ख्वाब जो देखें, सोते-जागते
बाकी दुनियाको फ़िक्र नहीं, कोई जीएं या मरें…
आईना झूठ नहीं बोलता, झूठ-मूठ तो हैं ख्याल
चाहे जितनी नेकी कर और फ़िर दरिया में डाल…
सारा जहां गुमसुम हो जायें, बंदे शुरू हो जाते हैं
सब-के-सब बोलने लग जायें तो मेंढ़क से लगें हैं…
जब कायनात सों गई है तो सरगोशियाँ कहती हैं
अपनी ही धुन सुनके ख़ामोशी भी चौंक उठतीं है…
🌷@तिलोत्तमा विजय लेले
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